बिहार के सीएम नीतीश कुमार की पहचान एक कुशल राजनेता के साथ-साथ सोशल इंजीनियरिंह के माहिर खिलाड़ी के तौर पर होती है। कहा जाता है कि नीतीश को ये बात बखूबी पता होती है कि उन्हें कौन सा कार्ड कब खेलना है और समाज के किस वर्ग को कब प्रोमोट करना है। इसकी बानगी हाल के दिन में दो मौकों पर दिखी है।

पहला मौका केंद्र की सरकार में शामिल होने के बाद नीतीश का बयान और दूसरा अपने कैबिनेट विस्तार में समाज के एक हिस्से को 75 फीसदी का प्रतिनिधित्व। केंद्र और बिहार की सराकर में मंत्री पद बंटवारे के साथ ही जातिगत राजनीति शुरू हो गई है। बात चाहे केंद्र की सरकार में बिहारी चेहरों को जगह मिलने की हो या फिर नीतीश सरकार में सबकी नजरें इस बात की तरफ टिकी है कि मोदी और नीतीश सरकार ने किस बिरादरी या किस वर्ग को मंत्री बनाने में तवज्जो दिया है।

लोकसभा चुनाव में 30 मई को पीएम मोदी के शपथ ग्रहण के बाद 31 मई को वापस पटना पहुंचने पर नीतीश ने केवल सरकार में शामिल नहीं होने का कारण बताया था बल्कि इस बात पर भी जोर दिया था कि बिहार के पिछड़ा और अति-पिछड़ा वर्ग के लोग उनके साइलेंट वोटर है। नीतीश कुमार ने इस दौरान केंद्र सरकार में जातिगत भागीदारी को लेकर भी सवाल उठाया था।

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